शिक्षक के दिल से झलकता दर्द - कविता के माद्यम से
शिक्षक हूँ, पर ये मत सोचो,
बच्चों को सिखाने बैठा हूँ
मैं डाक बनाने बैठा हूँ ,
मैं कहाँ पढ़ाने बैठा हूँ
कक्षा में जाने से पहले
भोजन तैयार कराना है
ईंधन का इंतजाम करना
फिर सब्जी लेने जाना है
गेहूँ ,चावल, मिर्ची, धनिया
का हिसाब लगाने बैठा हूँ
मैं कहाँ पढ़ाने बैठा हूँ ...
कितने एस.सी. कितने बी.सी.
कितने जनरल दाखिले हुए
कितने आधार बने अब तक
कितनों के खाते खुले हुए
बस यहाँ कागजों में उलझा
निज साख बचाने बैठा हूँ
मैं कहाँ पढ़ाने बैठा हूँ ...
कभी एस.एम.सी कभी पी.टी.ए
की मीटिंग बुलाया करता हूँ
सौ - सौ भांति के रजिस्टर हैं
उनको भी पूरा करता हूँ
सरकारी अभियानों में मैं
ड्यूटियाँ निभाने बैठा हूँ
मैं कहाँ पढ़ाने बैठा हूँ ...
लोगों की गिनती करने को
घर - घर में मैं ही जाता हूँ
जब जब चुनाव के दिन आते
मैं ही मतदान कराता हूँ
कभी जनगणना कभी मतगणना
कभी वोट बनाने बैठा हूँ
मैं कहाँ पढ़ाने बैठा हूँ ...
रोजाना न जाने कितनी
यूँ डाक बनानी पड़ती है
बच्चों को पढ़ाने की इच्छा
मन ही में दबानी पड़ती है
केवल शिक्षण को छोड़ यहाँ
हर फर्ज निभाने बैठा हूँ
मैं कहाँ पढ़ाने बैठा हूँ ...
इतने पर भी दुनियां वाले
मेरी ही कमी बताते हैं
अच्छे परिणाम न आने पर
मुझको दोषी ठहराते हैं
बहरे हैं लोग यहाँ
मैं किसे सुनाने बैठा हूँ
मैं कहाँ पढ़ाने बैठा हूँ ..
मैं नहीं पढ़ाने बैठा हूँ..
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